गायत्री महायज्ञ एवम महामृत्युंजय मंत्र यज्ञ

गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं।.

*"मृत्युंजय-महामंत्र का जप एवं पाठ"*

*(अपने जीवन, परिवार, समाज तथा राष्ट्र में सुमंगल सिद्धि हेतु)*

*ओं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मा अमृतात् ।।*

(ऋग्वेद-7/59/22)

भावार्थ- हम त्रिविधशक्तिस्वरूप, त्रिकालज्ञ एवं त्रिकालातीत त्र्यम्बक (त्रि/अम्बक) जगदीश्वर का यजन करते हैं। जो प्रभु जीवननिर्माता, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, प्राणिक एवं आत्मिक बलप्रदाता, सद्गुणों की सुगन्ध से सुवासितकर्त्ता एवं पुष्टिवर्धनविधाता हैं।

जैसे पका हुआ, रस से भरा हुआ, सुगंध से सुवासित, पुष्टिप्रदाता खरबूजा स्वतः अपनी डाल के बंधन से सहज विमुक्त हो जाता है।

उसीप्रकार पूर्णायु भोगकर,पौष्टिकशक्ति से सम्पन्न होकर एवं सद्गुणों की सुगंध से सुरभित होकर, ब्राह्मी स्थिति में स्थित हुआ मृत्यु के महाबंधन से मुक्त होकर (मृतकाया वाला)अमृतप्रभु की अमरता में अमृतरस (मोक्षानन्द)को प्राप्त करूँ।

गायत्री मंत्र महिमा -

ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है परिश्रम के लिए, पुरूषार्थ के लिए, कर्म के लिए जिससे धर्म मार्ग पर चलते हुए तप कर सके। यही मानव जीवन का ध्येय है। जो भी कर्म मनुष्य करता है उसके लिए श्रम तो चाहिए ही, तप भी चाहिए। लगन, निष्ठा, एकाग्रता ही तप है। इसी से कर्म सफल होता है। हम चाहे अच्छे कर्म करें या बुरे, श्रम और तप के बिना, पुरूषार्थ के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।

दिन में चौबीस घंटे होते हैं। गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं। गायत्री मंत्र का देवता सविता है जो हमें प्रेरणा देता है कि सूर्य के समान तेजस्वी बनों। सदैव अपने कर्म पथ पर अविचल बढते रहो। कैसी भी परिस्थितियां आएं, कितने भी अवरोध उत्पन्न हों, पर हम रूके नहीं।

परंतु आज आलस्य मनुष्य के रग रग में समाता जा रहा है। वह बिना कुछ किये धरे ही सब कुछ पा लेना चाहता है। उसका चिंतन विकृत होता जा रहा है। वह सोचता है कि ईश्वर की जो मर्जी होगी वही होगा इसलिए कर्तव्य पालन का श्रम करने की अपेक्षा चुप बैठे रहना या देवी देवताओं की मनौती मानना ही ठीक है। वह यह भूल जाता है कि परिस्थितियों का जन्मदाता वह स्वयं ही है। अपने भाग्य का निर्माण भी वह स्वयं ही करता है। श्रम से बचने के अनेक बहाने उसने खोज लिए हैं और असफलता को भाग्य के मत्थे डालकर वह संतोष करना चाहता है। उसके हिस्से केवल निराशा ही आती है। पुरूषार्थ करने से विपरीत परिस्थितियां भी हमारे अनुकूल होती चली जाती हैं। परमात्मा भी पुरूषार्थी की सहायता करता है और असफलता भी सफलता में परिणित हो जाती है।

आलस्य पुरूषार्थ का प्रबल शत्रु है। आलस्य सारे दुर्गुणों का मूल है। यह मनुष्य की उन्नति में बहुत बडा विध्न है और जीवन मूल्यों को बहुत अधिक हानि पहुंचाता है। आलसी व्यक्ति कार्य में टालमटोल करता है जो शनैः शनैः उसको असमर्थ बना देता है। उसे सर्वत्र निराशा ही हाथ लगती है। निराशा और हताशा से ग्रसित मनुष्य का विवेक भी नष्ट हो जाता है और वह परिस्थितियों से जूझने का साहस भी नहीं जुटा पाता। उसमें जो भी क्षमता पहले से होती है वह भी मंद और कुंद पड जाती है। वह कुछ करना तो चाहता है पर आलस्य वश कुछ कर नहीं पाता। विचारों को कार्यरूप में परिणत करने का उत्साह ही नहीं जागता। जो आलस्य रहित होकर चुस्त और फुर्तीले होते हैं, समय का सदुपयोग करते हैं, व्यर्थ बकवास में अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करते, सफलता उनके चरण चूमती है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, कीर्ति चाहते हैं, उन्हे आलस्य के भयंकर दोष को अपने जीवन से समूल उखाड़ कर फेंक देना चाहिए और उद्यमशील और मितभाषी बनकर श्रद्धापूर्वक पुरूषार्थ

करते रहना चाहिए। इसी से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती हैं

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